साहस व धैर्य का पर्वत
 



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सन ६१ हिजरी क़मरी में आशूर के दिन जब करबला का मैदान, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों के हाथों शौर्यगाथा रचे जाने का साक्षी था,



तब इमाम हुसैन के एक पुत्र की दृष्टि तंबू के भीतर से बाहर की ओर लगी हुई थीं।



उनका नाम अली इब्ने हुसैन था जो बाद में सज्जाद के नाम से प्रसिद्ध हुए। सज्जाद का अर्थ होता है अत्याधिक सजदे करने वाला।



बीमार होने के कारण उस महत्वपूर्ण दिन इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम का शरीर अपने पिता की सहायता करने की क्षमता नहीं रखता था किंतु उनका मन अपने पिता की सहायता के लिएव्याकुल था।



जब भी उनकी दृष्टि में अपने कृपालु पिता की छवि आती और जब भी वे विदाई के समय की अपने पिता की बातों को मन में लाते तो उनके अस्तित्व में



एक तूफ़ान सा उठने लगता था। उनके सिरहाने इमाम हुसैन के अन्तिम शब्द जो किसी घटना के सूचक थे इस प्रकार थेः- हर व्यक्ति को एक दिन इस संसार से जाना है।



यह वह परंपरा है जो सदा से जारी है।



समस्त कार्य ईश्वर की ओर से हैं और प्रत्येक जीवित प्राणी को इस मार्ग को तै करना है।



अब इमाम अली इब्ने हुसैन अलैहिस्सलाम उस कल के बारे में सोच रहे थे जो उनके पिता की शहादत के बाद उनके सामने होगा।



वह दिन जब इस्लामी राष्ट्र के नेतृत्व का ध्वज उनके कांधों पर होगा। इस आधार पर ईश्वर की यह इच्छा थी कि इमाम सज्जाद जीवित रहें



और इस महान ईश्वरीय नेतृत्व का दायित्व संभालें। आज हम इसी महान व्यक्तित्व की शहादत का दिन मना रहे हैं।



उनकी शहादत के दुखद अवसर पर हम हार्दिक संवेदना प्रकट करते हुए उनके जीवन से संबन्धित कुछ बातें प्रस्तुत करेंगे।



ईश्वरीय नेतृत्व संभालते समय इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की आयु २३ वर्ष थी। ईश्वरीय नेतृत्व जैसा भारी दायित्व बहुत ही कठिन परिस्थितियों में उनके कांधों पर आया था।



उस समय जब उमवी सरकार धर्म के पालन का दावा कर रही थी, इस्लामी जगत, धर्म की वास्तविक शिक्षाओं से काफ़ी दूर हो चुका था।



वास्तविकता यह थी कि उमवी शासक धर्म की वेशभूषा में और धर्म का आडंबर करके धार्मिक मूल्यों को क्षति पहुंचा रहे थे।



उस समय उमवी शासक आशूर की घटना को अपने हित में परिवर्तित करने के प्रयास में थे।



वे इमाम हुसैन और उनके साथियों के आन्दोलन को विद्रोह के रूप में दर्शाना चाहते थे।



इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने, जो क़ैद में बहुत ही विषम परिस्थितियों में जीवन व्यतीत कर रहे थे, बड़ी वीरता से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आन्दोलन को परिभाषित किया।



उन्होंने इतनी दूरदर्शिता से कार्य किया कि शत्रु, जो पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों की छवि को बिगाड़ने के लिए व्यापक कार्यक्रम रखता था, अपने कार्य में सफल नहीं हो सका।



इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आन्दोलन के मूल्यों और आकांक्षाओं को स्पष्ट एवं सिद्ध करने का कार्य इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम और उनकी फुफी हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाहे अलैहा



के नेत्तत्व में आरंभ हुआ। करबला का संदेश पहुंचाने वालों के जीवन का प्रकाशमई अध्याय शाम अर्थात वर्तमान सीरिया की उमवी मस्जिद में इमाम सज्जाद का भाषण था।



इमाम सज्जाद ने अपने तर्कपूर्ण एवं क्रांतिकारी भाषण से शाम में एक क्रांति उत्पन्न कर दी। जिस समय वे यज़ीद के दरबार में प्रविष्ट हुए उस समय यज़ीद अपनी विजय पर बहुत प्रसन्न था।



यज़ीद यह सोच रहा था कि परिस्थिति उसके हित में है। यज़ीद के दरबार में इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम बड़े साहस के साथ मिंबर पर गए



और उन्होंने कहा, हे लोगो, ईश्वर ने हमें ज्ञान, धैर्य, कृपा, महानता, वीरता और वाकपुटता जैसी विशेषताओं से सुसज्जित किया है और हमारे प्रेम को मोमिनों के हृदय में डाल दिया है।



हे लोगो, जो भी मुझको नहीं पहचानता उसे अपना परिचय देता हूं। उन्होंने स्वयं को पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) का पौत्र बताते हुए कहाः मैं सर्वोत्तम मनुष्य का पौत्र हूं।



मैं उसका पौत्र हूं जिसे मेराज कह रत मस्जिदुल हराम से मस्जिदुल अक़सा ले जाया गया।



उसके पश्चात इमाम सज्जाद ने अपने दादा इमाम अली और अपनी दादी हज़रत फ़ातेमा की विशेषताओं का उल्लेख किया। उसके पश्चात उन्होंने अपने पिता



इमाम हुसैन का महत्व बताते हुए कहा कि मैं उसका पुत्र हूं जो प्यासा मारा गया। जिस की अत्याचार के साथ हत्या की गई और जिसके शरीर को करबला की धरती पर छोड़ दिया गया।



मैं उसका पुत्र हूं जिसकी शहादत पर फ़रिशतों ने आंसू बहाए। मैं उसका पुत्र हूं जिसके सिर को काटकर भालों की नोक पर चढा दिया गया और जिसके



परिजनों को बदी बना कर इराक़ से शाम दर-दर फिराया गया।



इमाम सज्जाद का यह भाषण सुनकर दरबार में उपस्थित लोग रोने लगे।



जब यज़ीद ने स्थिति को अपने विरुद्ध होते देखा तो उसने इमाम सज्जाद के भाषण को रूकवा दिया।



इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ख़ून तथा इमाम सज्जाद और हज़रत ज़ैनब ने उमवियों को इस प्रकार अपमानित किया कि लोग यज़ीद को बुरा भला कहने लगे और उससे दूर हो गए।



निःसन्देह, अपने बंदीकाल के दौरान इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम और हज़रत ज़ैनब के जागरूक करने वाले



संबोधनों ने इस्लमी जगत की सोई हुई अन्तरात्मा को झिंझोड़ दिया और उनके हृदयों में करबला के शहीदों का बदला लेने की भावना जाग्रत कर दी।



इस प्रकार तव्वाबीन और मुख़्तार के आन्दोलन सामने आए।