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आमपौर पर (अधिकतर) हमारी ज़बानों से एक वाक्य सुनने को मिलता है रवासिमे अज़ा (रीतियाँ) मरासिमे अज़ा (प्रथाऐं) जिसका अर्थ हर वह कार्य होता है जिसका सम्बन्ध अज़ादारी से हो।
शाब्दिक दृष्टि से रस्म (रीति) के विभिन्न अर्थ होते हैं इनमें शक्ल, सूरत, निशान, अलामत (चिन्ह) के साथ साथ तरीक़ा (विधि) क़ानून, नीति, आदत आदि भी हैं।
जिसमें अच्छे, बुरे, ग़लत, सही की कोई क़ैद नही है और न ही धर्म, जाति, वंश की शर्त बल्कि हर वह बात और काम जो आदत (स्वभाव) में शामिल हो जाये रस्म (रीति) कहलाने लगता है।
इसमें इसकी कोई शर्त नही है कि वह लाभदायक है या हानिकारक आवश्यक या अनावश्यक, इसलिये ऐसी समस्त प्रचलित विधियाँ जिनको रस्म (रीति) कह कर याद किया जाता है
अनावश्यक समध लिये जाते हैं। बल्कि अकसर उन पर यह ऐतेराज़ (आपत्ति) भी हो जाते हैं ऐसी अवस्था में प्रश्न यह उठता है कि
इमाम हुसैन (अ) की अज़ा (शोक) में शोक प्रक्रट करने के लिये जो तरीक़े प्रयोग में आते हैं, यह भी परम्परा है और अज़ा ए इमाम हुसैन (अ)
के बारे में हमारे सम्त कार्य, कथन, बिल्कुल महत्व नही रखते हैं इसलिये कि अगर हम उसको महत्व दें तो अपने अरकाने अज़ा (स्तम्भ) मरासिमे अज़ा (परम्परा) न कहा करते।
वास्तव में अबी हमने यही निर्णय नही लिया है कि अज़ादारी एक रस्म (परम्परा) है या इबादत।
स्पष्ट है कि अगर अज़ादारी को हम रस्म समझते हैं होंगे तो अज़ा के तमाम तरीक़े रवासिम (रीतियाँ) मरासिमे अज़ा (प्रथाऐ) ही कहे जायेंगें।
लेकिन अगर अज़ा रस्म नही बल्कि इबादत है तो उससे सम्बन्धित सभी कार्य, मरासिम (परम्परा) नही बल्कि उस इबादत के अंश और स्तम्भ होंगे बात केवल एहसास की है
अगर हमारा तहतुश शुऊर (अवचेतना) किसी वास्तविकता से प्रभावित है तो लाशऊरी तौर पर (......) उससे सम्बन्धित कार्यों में उसके प्रभाव मिलेंगे। अत:
अगर इबादत के बारे में भी परम्परा जैसे शब्दों का उपयोग किया जाये तो इबादत अपनी वास्तविकता से हट कर रस्म (परम्परा) बन जायेगी और हम इबादत के महत्व
और सम्मान से बिल्कुल वंचित हो जायेंगे। उदाहरण स्वरूप ईद मनाना हमारी ऐसी इबादत है जो इस्लाम की महत्वपूर्ण इबादत है।
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