अमर शौर्यगाथा 2
 



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रेगिस्तान में सरपट दौड़ रहे थे और उनकी टापों से उठने वाली धूल से आकाश पर बादल से बन गये थे।

करबला की धरती ने इससे पहले इतने लोगों को एकत्रित होते हुए नहीं देखा था। दिन के हर कुछ घंटों बाद ताज़ा दम सेना इस धरती पर भेजी जा रही थी।

उमर इब्ने साद अबी वक़्क़ास चार हज़ार सैनिकों के साथ करबला में प्रविष्ट होता है और इमाम हुसैन से कहता है कि वे यज़ीद के आज्ञा पालन को स्वीकार करें।

कुछ ही घंटों बाद शिम्र ज़िल जौशन मुरादी के नेतृत्व में भारी संख्या में ताज़ा दम सैनिक करबला में प्रवेश करते हैं।

शिम्र सिर से पैर तक लोहे और फ़ैलाद में डूबा हुआ घोड़े से नीचे उतरता है।

निर्दयता और हृदय की कठोरता उसकी आंखों में साफ़ तौर पर दिखाई दे रही थी। वह बड़े ही घमंड से कूफ़े के राज्यपाल ओबैदुल्लाह इब्ने ज़ियाद का पत्र उमरे साद के हवाले करता है।

पत्र में लिखा था कि हे साद के पुत्र मैंने तुम्हें इस लिए नहीं भेजा था कि हुसैन के साथ नर्म व्यवहार करो, यदि हुसैन नहीं मानते हैं तो उन पर और उनके साथियों पर आक्रमण कर दो और

उनको मार डालो तथा उनके शवों को घोड़ों की टापों से कुचल दो।

तुम यह काम कर दोगे तो मैं तुम्हें बेहतरीन पारितोषिक दूंगा किन्तु यदि तुम यह कार्य नहीं कर सकते तो सेना का नेतृत्व शिम्र के हवाले कर दो।

उमरे साद ने शिम्र की ओर मुंह करके कहा कि धिक्कार हो तुझ पर लानत करे तूने अपनी चाल चल ही दी।

शिम्र ने ऊंची आवाज़ में चिल्लाकर कहा कि जब तक यज़ीद का आदेश पूरा न कर लूंगा चैन से नहीं बैठूंगा।

अंततः मोहर्रम की छठी तारीख़ तक 20 हज़ार से अधिक सशस्त्र सैनिक पैग़म्बरे इस्लाम के जिगर के टुकड़े और स्वर्ग के युवाओं के सरदार हज़रत हमाम हुसैन से युद्ध करने करबला आ गये।

करबला दो मोर्चों में विभाजित है। एक ओर जहां तक नज़र जाती तंबू, घोड़े, भाले व तलवारें और सैनिक ही सैनिक नज़र आते हैं

और दूसरी ओर कुछ छोटे छोटे तंबू थे जिनके बीच एक बड़ा तंबू है जिसका ऊपरी भाग हरे रंग का है।

एक ओर सांसरिक मायामोह में ग्रस्त घमंड और अहंकार में चूर सैनिक शराब पी रहे हैं तो दूसरी ओर थोड़े से लोग जो प्रेम,

ईश्वर की उपासना और रसूले इस्लाम (स) के नाती हज़रत इमाम हुसैन की रक्षा के उत्साह में भरे हुए हैं और समस्त सांसरिक दिखावट उनके निकट मूल्यहीन है।

वे ईश्वर की यादों में लीन थे और क़ुरआन पढ़ रहे हैं।

सैन्य कमान्डरों को थोड़े थोड़े अंतराल से कूफ़े के राज्यपाल के संदेश मिल रहे हैं कि हुसैन इब्ने अली से कहो कि अपने साथियों के साथ यज़ीद की आज्ञा पालन की प्रतिज्ञा कर

लें नहीं तो उनकी गर्दन उड़ा दो। दूसरे पत्र में संदेश आया कि हुसैन के साथ कड़ाई करो, उन पर और उनके साथियों पर पानी बंद कर दो।

इमाम हुसैन के प्रकाशमयी चेहरे पर मनुष्यों के मार्गदर्शन और वास्तविकता का प्रेम साफ़ नज़र आ रहा है किन्तु कूफ़े वासियों की पथभ्रष्टता और बर्बादी से उनका दिल दुखा हुआ है।

वे विरोधियों के मोर्चे के सैनिकों के लिए यथावत भाषण दे रहे हैं कि लोग संसार के दास होते हैं और धर्म केवल उनकी ज़बान पर होता है

और वह भी तब तक जब तक जीवन उनकी इच्छानुसार चलता रहता है किन्तु जैसे ही लोग कठिनाईयों में ग्रस्त होंगे, धार्मिक लोगों की संख्या बहुत कम हो जाएगी।

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का कारवां मरुस्थल पर छाये घोर सन्नाटे में आगे बढ़ रहा था। ऊंटों की गर्दनों में बंधी घंटियों की आवाज़ सुनाई दे रही थी।

अचानक कारवां के एक व्यक्ति के मुंह से निकली अल्लाहो अकबर की आवाज़ से मरूस्थल में छाया सन्नाटा टूट गया।

उस व्यक्ति ने कहा हे इमाम मैं खजूरों का बाग़ देख रहा हूं जो इससे पहले यहां नहीं था।

उसके बाद कई लोग साथ मिलकर देखते और कहते हैं" यह खजूर के बाग़ की कालिमा नहीं है।

ये सवार हैं जिनके हाथों में भाले हैं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के कारवां के आगे बढ़ने के साथ सवार लोगों का कारवां भी धीरे- धीरे निकट हो रहा था।

उस कारवां का सेनापति अपने सैनिकों के प्यासे होने की सूचना देते हुए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से कहता है आपके पास अवश्य पानी होगा। हमारे सैनिक और घोड़े बहुत प्यासे हैं।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जानते थे कि ये शत्रु के सैनिक हैं परंतु अपनी कृपालु प्रवृत्ति के कारण समस्त प्यासे लोगों यहां तक कि उनके घोड़ों को पानी पिलाने का आदेश देते हैं।

उसके पश्चात आप सेनापति से पूछते हैं तुम कौन हो? सेनापति उत्तर देता है मैं हुर बिन यज़ीद रियाही हूं।

उसके बाद इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम पूछते हैं हमारे साथ हो या हमारे विरुद्ध? सेनापति कहता है हम आपका रास्ता बंद करने के लिए आये हैं।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम सैनिकों के चेहरों को देखते हैं। जब आप समझ जाते हैं कि ये कूफा के सैनिक हैं तो उन्हें संबोधित करते हुए कहते हैं क्या तुम लोग वही नहीं थे

जिन्होंने मुझे हज़ारों पत्र लिखे और अपने यहां आने का निमंत्रण दिया? उसी समय इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के कारवां में से एक व्यक्ति अज़ान देता है और सबको नमाज़ के लिए बुलाता है।

दोनों कारवां के लोग इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पीछे नमाज़ पढ़ते हैं।

उसके पश्चात इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम कारवां को आगे बढ़ने का आदेश देते हैं परंतु हुर अपने सैनिकों के साथ इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का रास्ता बंद कर देता है।

उस समय इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम कहते हैं हे हुर तू हमसे क्या चाहता है? हुर कहता है हमें आपका रास्ता रोकना है।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम फिर भाषण देते और अपनी बात कहते हैं" हे लोगो!

तुम लोगों ने मुझे अपनी सहायता के लिए बुलाया और जब मैंने तुम्हारी मांग स्वीकार कर ली तो मेरे विरुद्ध अपनी तलवारें उठा ली। यह सोचना भी नहीं कि हम अपमान को स्वीकार करेंगे।

ईश्वर, उसके पैग़म्बर और मोमिनों अर्थात ईश्वर पर आस्था रखने वालों ने मुझे इस कार्य से रोक रखा है और वे इस बात को वैध व उचित नहीं समझते कि मैं

इन भ्रष्ठ व्यक्तियों के अनुसरण को सम्मानीय मृत्यु पर प्राथमिकता दूं।

हुर और उसकी सेना कदम- कदम पर इमाम का पीछा करती रही जबकि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के भाषण से उसके हृदय में अवर्णिय तूफान उठ रहा था।